
शौनक
जी ने पूछा- ऐसा कौन सा व्रत अथवा तप है, जिसे
करने से सभी लोग वांछित फल पा सकते हैं, यह विषय हमें कृपया
भली प्रकार समझाइये।
सूतजी
बोले- एक बार देवर्षि नारद ने भी भगवान विष्णु से ऐसा ही प्रश्न किया था। उस
प्रसंग को मैं कहता हूँ; आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।
एक बार नारदजी लोक कल्याण की भावना से विविध लोकों में विचरण करते हुए मृत्यु लोक (पृथ्वी) में पहुँचे। वहाँ उन्होंने अधिकांश मनुष्यों को अपने ही असत्कर्मों के प्रभाव से नाना प्रकार के कष्ट पाते देखा।
उदाहरण
१-
राजा दशरथ राम के वियोग में जल विहीन मछली की तरह छटपटा रहे थे। देवी कौशल्या
उन्हें समझाकर धैर्य दिलाने का प्रयास कर रही थीं। मन्त्री सुमन्त्र के मन में
प्रश्न उठा कि पुत्र वियोग तो रानी को भी है, पर दुःख
राजा को अधिक क्यों भोगना पड़ रहा है। प्रश्न का समाधान तब हुआ,जब होश आने पर दशरथ स्वयं कौशल्या जी को अपने द्वारा श्रवण कुमार के वध की
कथा सुनाने लगे। सुमन्त्र समझ गये कि राजा के अपने कर्म ही उन्हें दुःख दे रहे
हैं।
लोगों को पीड़ित देखकर देवर्षि दुःखी हुए और समस्या का समाधान खोजने लगे:प्राणियों के कष्ट और दुःख कैसे मिटें, यह सोचते हुए वे विष्णुलोक जा पहुँचे।
वहाँ उन्होंने भगवान से प्राणियों के कष्ट निवारण का उपाय पूछा:भगवान ने उन्हें बतलाया कि जब मनुष्य अपने लिए निर्धारित सत्य पथ से विचलित हो जाते हैं, तभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है । इस स्थिति से उबरने के लिए व्रतपूर्वक निर्धारित अनुशासनों के पालन का अभ्यास करना चाहिए।
भगवान विष्णु बोले- हे नारद ! "सत्यनारायण व्रत" एक ऐसा व्रत है, जिसे विधि-विधानपूर्वक करने से इस जीवन में सुख की प्राप्ति होती है और मरने पर सद्गति अथवा यश मिलता है।
भगवान व्यक्ति रूप नहीं, भाव रूप हैं।
कथा प्रसंग
१-
राजा हरिश्चन्द्र परीक्षा में सफल हुए तथा भगवान ने प्रकट होकर उन्हें अपने श्रेष्ठ
भक्त की मान्यता दी। प्रश्न उठा कि यह तो वर्षों तक अनवरत श्रम में लगे रहे, पूजा-उपासना का इन्हें समय ही नहीं मिला, फिर इन्हें
श्रेष्ठ भक्त का सम्मान क्यों कर मिल गया? देवगुरु बृहस्पति
ने समझाया-"वत्स! हरिश्चन्द्र सतत उपासना में लगे रहे हैं, उन्होंने सत्य रूप में प्रभु की उपासना की है। उनके मन से सत्य की मर्यादा,
प्रतिष्ठा का विचार क्षण भर को भी नहीं हटा। भगवान की यह श्रेष्ठ
उपासना है, इसीलिए उन्हें यह सम्मान मिला।
४-
भीष्म शर-शैय्या पर लेटे थे। मामा शकुनि उनके पास गये और बोले"आपने शत्रु
पक्ष को अपनी दुर्बलता बताकर स्वयं भी कष्ट पाया तथा हमारी भी हानि की, ऐसा करना आपके लिए उचित न था। भीष्म ने कहा - "शकुनि तुम भूलते हो कि
कौरवों के अन्न से शरीर पालने के कारण केवल शरीर से में तुम्हारे पक्ष में था।
मेरा अन्त:करण प्रभु के अनुदानों से पलता है, अत: मन से मैं
उसी पक्ष में हूँ, जिस पक्ष में भगवान कृष्ण हैं । शकुनि ने
प्रश्न किया -"क्या आप भी उस छलिया कृष्ण को ईश्वर मानते हैं? भीष्म बोले- कृष्ण को ईश्वर मानूँ न मानूं, पर सत्य
पाण्डवों के पक्ष में हैं। मैंने जीवन भर सत्य को ही ईश्वर मानकर उसकी आराधना की
है। इसलिए अपनी प्रतिज्ञायें जीवन भर निभा सका। वहीं मेरा सच्चा इष्ट है।
हे
नारद ! संसार में लोग सत्य धर्म की उपेक्षा करने के कारण ही अत्यधिक कष्ट पा रहे
हैं। यदि संसारी मनुष्य शब्दों से ही नहीं, आचरण से भी सत्य धर्म के पालन के लिए तत्पर हो जायें, तो निश्चित रूप से दुःखों से छुटकारा पा सकते हैं।
धर्म के चार चरण-
धर्मरूपी वृषभ के चार चरण कहे गये हैं-
(१) विवेक
(२) संयम
(३) सेवा
(४) साहस
सत्य धर्मपालक के जीवन में यह सभी गुण रहते हैं।
उदाहरण
१.विवेक-
धर्म
विवेक - सम्मत ही होता है। विवेकपूर्ण निर्णय लेने वालों को धर्म पालन में अग्रणी
माना गया है । स्थूल दृष्टि से भले ही उनके आचरण विपरीत दिखते हों; जैसे
पिता
तज्यो प्रह्लाद विभीषण बन्धु, भरत
महतारी। बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज बनितन, भे मुद
मंगलकारी ।।
पिता, बड़े भाई, माता, गुरु एवं पति
की आज्ञा मानना धर्मसंगत कहा जाता है; किन्तु प्रह्लाद का
पिता हिरण्यकश्यप, विभीषण का भाई रावण, भरत की माँ कैकेयी, बलि के गुरु शुक्राचार्य तथा
गोपियों के पति उन्हें श्रेष्ठ-मार्ग पर ईश्वरीय-मार्ग पर बढ़ने से रोकते थे। अत:
उन्होंने परम्परा की जगह विवेक को महत्त्व दिया तथा उनकी अवज्ञा कर दी। विवेक-
सम्मत होने से उन्हें धर्म परायण ही माना गया ।
२. संयम-
३. सेवा-
१- भगवान
राम ने हनुमान जी को सेवा का महत्त्व बताते हुए कहा-
सोई अनन्य जाके अस मति न टरई हनुमंत । मैं
सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥
हनुमान जी ने उसे अपना गुरु मंत्र बना
लिया और पूरी तत्परता से सेवा कार्य में अपनी सारी शक्ति-सामर्थ्य लगा दी।
फलस्वरूप वे भगवान के साथ-साथ पूजा के अधिकारी बन गये।
४. साहस-
सत्यधर्मपरायण
व्यक्ति अपने परिवार और समाज को एक उपवन मानकर कर्तव्यनिष्ठ माली की तरह उसका शोधन, पोषण और संवर्धन करता है।
उदाहरण
१- एक
राजा ने दो माली रखे और उन्हें एक-एक बगीचा सौंप दिया। मंत्रियों ने उन्हें समझाया
कि राजा को प्रसन्न रखना उनका परम कर्तव्य है। एक माली ने बगीचे में राजा का चित्र
स्थापित करके अधिकांश समय उसकी पूजा, वंदना, आरती में लगाना प्रारम्भ कर दिया। दूसरे ने राजा की रुचि का ध्यान रखकर
उसी के अनुसार सुन्दर फल-फूल उगाने प्रारम्भ कर दिये । राजा निरीक्षण के लिये
पहुंचे, तो पहले माली से उन्हें बहुत निराशा हुई और दूसरे को
उन्होंने पारितोषिक देकर सम्मानित किया।
इन पाँच दोषों से बचना चाहिए
सत्यनिष्ठ
लोगों का हृदय लोभ, ममत्व (मोह), मात्सर्य
(ईर्ष्या-डाह), मद (अहंकार) और काम(इच्छा) आदि दोषों से
मुक्त होता है तथा वे दूसरों के दोषभी नहीं ढूंढाकरते।
१. लोभ-
किसी
वस्तु, पद अथवा यश के आकर्षण में व्यक्ति विवेक
खो बैठता है। सत्यसाधक विवेक से यथार्थ को समझ कर लालच में नहीं पड़ता। लोभी सत्य
भूल कर दुर्गति वरण कर लेता है।
उदाहरण -
(१) मछली
काँटे में लगे आटे के लालच में जान गँवाती है। पक्षी दाने के लोभ में शिकारी का
जाल नहीं देख पाते और फैसते हैं। मनुष्य स्वादिष्ट भोजन के लोभ में पेट खराब करके
रोगी बन जाते हैं। पैसे के लालच में पड़ कर लोग मनुष्यता भूल जाते हैं, भाईचारा तोड़कर कुकृत्य करते देखे जाते हैं।
(२)
दुर्योधन द्वारा सेनापति बनाये जाने की लालच में अश्वत्थामा ने नियम विरुद्ध रात
में सोते हुए पाण्डव पुत्रों की नृशंस हत्या कर दी और जीवन भर के लिये कलंक तथा
अपयश कमाया, मिला कुछ भी नहीं।
२. मोह-
३. काम-
१- सुन्द-उपसुन्द
महाबली दैत्य थे। उन्होंने वरदान माँगा था कि वे परस्पर एक दूसरे को मारें तभी
मरें, अन्यथा नहीं। उनमें बड़ा प्रेम था। भगवान ने मोहिनी
रूप बनाया। दोनों उस पर मोहित हो गये। मोहिनी ने उनसे अलग-अलग बातचीत की। मोहिनी
के आसक्ति में वे एक दूसरे से लड़कर नष्ट हो गये।
२- इन्द्र
और चन्द्रमा ने मिलकर गौतम ऋषि तथा उनकी पत्नी अहिल्या से छल किया । चन्द्रमा ने
मुर्गा बनकर बाँग लगाई, सबेरा हुआ समझ कर ऋषि गंगा स्नान करने चल
पड़े। इन्द्र ऋषि का वेष बनाकर अहिल्या का सतीत्व भंग कर दिया । फलस्वरूप दोनों को
शाप लगा और वे सदा के लिए कलंकित हो गये।
३- राजा
ययाति ने अपनी आयु पूरी होने पर अपने पुत्र की जवानी माँग ली, फिर भी कामेच्छा तृप्त न हुई, फलत: उसे निकृष्ट योनि
में जाना पड़ा । नहुष इन्द्र पद पाने के बाद भी इन्द्राणी पर कुदृष्टि डालने के
कारण ही सर्प योनि में गये।
४. मात्सर्य (ईर्ष्या-डाह)-
१-
भक्त अंबरीष की ख्याति, निश्छल स्वभाव और सेवा भावना के कारण
फैलने लगी । ऋषि दुर्वासा को उनके यश से ईर्ष्या हुई और वे अकारण नीचा दिखाने के
लिए शिष्यों सहित पहुँचे और केवल इस बात पर क्रुद्ध हो उठे कि अंबरीष ने उन्हें भोजन कराये बिना चरणामृत और तुलसीदल क्यों पान कर लिया ?
उन पर कृत्या शक्ति छोड़ दी। अम्बरीष शान्त बने रहे। भगवान विष्णु
ने यह अनीति देखकर सुदर्शन चक्र छोड़ा। कृत्या को समाप्त करके वह दुर्वासा के पीछे
लग गया, जब तक उन्होंने अंबरीष से क्षमा नहीं मांग ली,
वे तीनों लोकों में भागने पर भी निर्भय न हो सके।
२- पाण्डवों
को छल से जुए में हराकर कौरवों ने उन्हें शर्त के अनुसार वनवास के लिए भेज दिया।
वे परस्पर सद्भाव के कारण वहाँ भी सुख से रहने लगे। उन्हें चिढ़ाने के लिए
कौरव दल-बल सहित वैभव प्रदर्शन करने जंगल में पहुँचे। वहाँ यक्षों के सरोवर में
स्नान करने पर झगड़ा हुआ और यक्षों ने कौरवों को बन्दी बना लिया। सूचना पाकर पाण्डवों ने ही
उन्हें छुड़ाया। कौरवों को बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा।
३- ऋषि
वशिष्ठ ने विश्वामित्र को बिना पात्रता पाये, ब्रह्मर्षिकहने
से इन्कार कर दिया। विश्वामित्र उनसे द्वेष करने लगे तथा अनेक प्रकार से हानि
पहुंचाने का प्रयास किया। छल से उनके १०० पुत्रों को मार डाला। इससे उन्हें बहुत
बदनामी उठानी पड़ी। पर जब इसे छोड़कर वे वशिष्ठ जी के सामने नम्र बने, तभी ब्रह्मर्षि पद के योग्य बन सके।
४-
एक परिवार में बुड्डा, बुढ़िया तथा एक बच्चा केवल तीन थे। उन पर
दया करके शिव-पार्वती ने उनसे एक-एक वरदान माँगने को कहा। बुड्ढा और बुढ़िया का
ईर्ष्यालु स्वभाव था । बुदिया ने मांगा "मुझे सुन्दर युवती बना दें।"
बुड्ढा ईर्ष्या से जल उठा और मांगा “इसे सुअरिया बना दें।" यह देख बच्चा रो
उठा और उसने मांगा- "मेरी मां ज्यों की त्यों हो जाये"। तीनों वरदान
पूरे हो गये, पर हाथ कुछ भी न लगा।
५- उक्ति है "उघरे अन्त न होहि निबाहू कालनेमि जिमि रावण राहू" छल करने
वालों का भेद कभी न कभी खुल ही जाता है और फिर वे हानि उठाते हैं। कालनेमि संजीवनी
बूटी लेने जाते हुए हनुमान को धोखा देने ऋर्षि बनकर बैठा था, पर मारा गया। रावण ने छल से सीता हरण किया, पर उसे
अपमान सहते हुए वंश सहित नष्ट होना पड़ा। राहु देवताओं का वेष बनाकर अमृत पान करने
उनकी पंक्ति में जा बैठा, पर सूर्य व चन्द्र ने पहचान लिया
तथा सिर कटा बैठा।
५. मद (अहंकार)-
यह
मनुष्य एवं देव सभी को श्रेष्ठ मार्ग से भटका देता है।
२- भीम
को अपनी शक्ति का अंहकार हो गया। कृष्ण भगवान ने सोचा कि इनका अभिमान दूर न किया
गया, तो अनिष्ट होगा। अत: हनुमान जी को समझा कर भेज दिया।
वे मार्ग में बुड्ढे का वेष बनाकर पड़ गये। भीम आये, तो
उन्हें रास्ता रोकने के लिए अहंकारपूर्वक अभद्र शब्द कहने लगे। हनुमानजी ने विनय
की कि मैं चल नहीं सकता, आप ही मुझे एक ओर खिसका दें। भीम ने
तिरस्कारपूर्वक प्रयास किया, फिर सारा बल लगा दिया, पर उन्हें हिला भी न सके । उनका अहंकार गल गया, तो
हनुमान जी ने अपना रूप दिखाकर उन्हें नम्र बने रहने का उपदेश दिया।
३- नारद
जी की तपस्या कामदेव भंग न कर सका । नारद जी को अहंकार हो गया। सबसे अपनी बड़ाई
कहते फिरे, किन्तु विश्वमोहिनी पर मोहित होकर स्वयं
तमाशा बनना पड़ा, भगवान से भी लड़ पड़े। बाद में बोध हुआ,
तो पछताना पड़ा।
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